How Earth was born from thin Air ?

:- जनवरी 2005 में नासा की तरफ से एक अनोखा प्रोब स्पेस में लॉन्च किया जाता है इसका मिशन यह पता लगाना था कि आखिर अर्थ पर पानी आया कहां से डीप इंपैक्ट नामी यह प्रोब 27 करोड़ किलोमीटर ट्रेवल करने के बाद एक कॉमेट के करीब पहुंचता है और इसी कॉमेट में छुपे थे कई ऐसे राज जिन्हें पिछली कई सदियों से ढूंढा जा रहा था जम टीवी की वीडियोस में एक बार फिर से खुशामदीद नाजरीन पूरी यूनिवर्स में सिर्फ एक ही ऐसी जगह है जहां ह्यूमन बीइंग्स जिंदा रह सकते हैं ऐसा मालूम होता है जैसे अर्थ को इंसानों के लिए ही बनाया गया है यहां वह तमाम चीजें मौजूद हैं जो जिंदगी के लिए बहुत अहम मानी जाती हैं पानी खाना और ऑक्सीजन इतनी वसी और जाइंट यूनिवर्स में दूसरा कोई ऐसा प्लेनेट हो या ना हो लेकिन फिलहाल हम सिर्फ अर्थ को ही जानते हैं जहां पर इंसान बगैर किसी मदद के जिंदा रह सकता है पर आज से पांच अरब साल पहले अर्थ का कोई वजूद ही नहीं था जिस जगह पर आज अर्थ और हमारा सोलर सिस्टम मौजूद है यह मिल्की वे गैलेक्सी का किनारा है जब हमारा प्लेनेट नहीं था तो इसकी जगह यहां पर एक बहुत बड़ा बादल हुआ करता था एक ऐसा बादल जिसमें सिर्फ मिट्टी और गैसेस भरी हुई थी आखिर इस बादल में ऐसा क्या हुआ जो यह एक प्लेनेट में बदल गया वही प्लेनेट जहां आज हम रहते हैं मिट्टी और गैसेस के इस बादल को मॉलिक्यूलर क्लाउड कहा जाता है इस बादल में डस्ट पार्टिकल्स थे जिसमें रेत सिलिकॉन और मुख्तलिफ मेटल्स के जर्रा भी शामिल थे इस बादल की पैदाइश मुख्तलिफ डेड स्टार्स की वजह से हुई थी यूनिवर्स के शुरुआती वक्त में जिन स्टार्स ने अपना सारा फ्यूल जला दिया वो फट गए और फटने की वजह से उनके जर्रा आसपास यूनिवर्स में फैल गए यह आसमान में दिखने वाले बादल की तरह नहीं बल्कि यह कुछ ऐसे दिखते हैं जिनको हबल स्पेस टेलीस्कोप की मदद से कैप्चर किया गया था हैरत अंगेज तौर पर यह बादल 100 लाइट इयर्स जितना बड़ा था यानी इसके एक कोने से अगर कोई लाइट ट्रेवल करना शुरू हो तो इसको मॉलिक्यूलर क्लाउड के दूसरे कोने तक पहुंचने में 100 साल लग जाएंगे आसान अल्फाज में समझा जाए तो सूरज और अर्थ के दरमियान जितना डिस्टेंस है इससे 60 लाख गुना बड़ा यह मिट्टी का बादल था यही वह बादल है जिसमें से नए स्टार्स और प्लेनेट बनते हैं और जो ताकत जो फोर्स इस बादल में से स्टार्स और प्लेनेट को बनाती है वो है ग्रेविटी जी हां वही ग्रेविटी जो स्पेस में होती तो नहीं बल्कि यह जनरेट होती है स्पेस में दो ऑब्जेक्ट्स अपनी-अपनी ग्रेविटी की वजह से एक दूसरे से जुड़ जाते हैं या एक दूसरे को अट्रैक्ट करते हैं जिस ऑब्जेक्ट का मास ज्यादा होगा उसकी ग्रेविटी भी ज्यादा होगी मॉलिक्यूलर क्लाउड के पार्टिकल्स इसी ग्रेविटी की वजह से एक दूसरे में जुड़ते गए जो बड़े पार्टिकल्स थे उन्होंने छोटे पार्टिकल्स को अट्रैक्ट करना शुरू कर दिया यह पार्टिकल्स बहुत तेजी से एक दूसरे में टकराने लगे और इसकी वजह से एनर्जी जनरेट हुई जिसने गोल घूमते हुए बादल के कोर को उसके सेंटर को गर्म कर दिया अगले करोड़ों सालों तक यह प्रोसेस ऐसे ही चलता रहा और मॉलिक्यूलर क्लाउड का कोर बड़ा भी होता गया ज्यादा तेज भी घूमने लगा और ज्यादा गर्म भी हो गया और एक वक्त के बाद यह बहुत बड़ा फाय बॉल हमारा सूरज बन गया बचा हुआ मॉलिक्यूलर क्लाउड अब इसी सूरज के गिर्द घूमने लगा इसमें मौजूद पार्टिकल्स और गैसेस से ही सोलर सिस्टम के प्लेनेट जिंदगी और उन प्लेनेट के गिर्द घूमने वाले चांद बनेंगे पर आखिर कैसे यह एक मिस्ट्री थी लेकिन अब नहीं है मॉलिक्यूलर क्लाउड से स्टार यानी सूरज बनने के बारे में पहली बार एक हाइपोथेसिस 1700 में जर्मन फिलोसोफर इनुल कांट और फ्रेंच स्कॉलर पियर साइमन की तरफ से पेश किया गया लेकिन उस वक्त यह सिर्फ एक आईडिया था उसके बाद 1920 और 1950 के बीच में जब टेलीस्कोप्स काफी एडवांस होने लगे तो एस्ट्रोनॉमिकली स्कोप की मदद से पॉसिबल नहीं था फिर 1970 और 1980 के बीच रेडियो और इंफ्रारेड टेलीस्कोप्स की इन्वेंशन ने यह मसला भी हल कर दिया अब डस्ट और गैसेस के इन बादलों के अंदर देखना भी मुमकिन हो गया एस्ट्रोनॉमिकली स्कोप्स की मदद से मॉलिक्यूलर क्लाउड्स के अंदर नए स्टार्स को बनते हुए देखा इससे यह साबित हो गया कि नए स्टार्स मॉलिक्यूलर क्लाउड्स के अंदर ही जन्म लेते हैं और बादल के बचे हुए पार्टिकल से बाद में प्लेनेट बनते हैं पर यह प्रोसेस शुरू कैसे होता है पहले इसके बारे में कई आइडियाज फ्लोट किए गए लेकिन फिर मार्च 2003 में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में एक एक्सपेरिमेंट किया गया जिसने सदियों पुराने इस सवाल का जवाब दे दिया एस्ट्रोनॉट डॉन पेटेड आईएसएस में मौजूद मुख्तलिफ चीजों के साथ एक्सपेरिमेंट करके यह देखना चाहते थे कि यह चीजें स्पेस में कैसे बिहेव करती हैं उन्होंने पानी के बबल्स बनाए और उसके अंदर डिजॉल्ड्रिंग और एक प्लास्टिक बैग में नमक डालकर उसे स्पिन किया इन एक्सपेरिमेंट्स का मकसद वैसे तो कुछ और था लेकिन उनके आखिरी एक्सपेरिमेंट ने सदियों पुराने सवाल का जवाब दे दिया जब नमक को प्लास्टिक बैग में डाला गया तो थोड़ी देर के बाद सॉल्ट पार्टिकल्स एक दूसरे के साथ चिपक गए क्योंकि स्पेस में ये पार्टिकल्स एक दूसरे को अट्रैक्ट करते हैं साइंटिस्ट का मानना है कि मॉलिक्यूलर क्लाउड के अंदर छोटे-बड़े जर्रा जो सारे सूरज के गिर्द एक ही डायरेक्शन में घूम रहे थे वह आपस में इसी नमक की तरह जुड़ गए और यहीं से प्लेनेट के बनने की शुरुआत हुई करीब 45 अरब साल पहले मॉलिक्यूलर क्लाउड में भी इसी तरह पार्टिकल्स मिलकर एक झुंड बनाने लगे ठीक उसी तरह जैसे डॉन पेडिट के एक्सपेरिमेंट में नमक के जर्रा एक दूसरे से मिल रहे हैं जब इस झुंड का साइज 1 किलोमीटर तक यानी एक पहाड़ की साइज जितना बड़ा हो गया तो इसकी अपनी ग्रेविटी इतनी ज्यादा हो गई कि इसने आसपास के पार्टिकल्स को भी अपनी तरफ अट्रैक्ट करना शुरू कर दिया ठीक उसी तरह जैसे वैक्यूम क्लीनर मिट्टी को अपने अंदर सक करता है अगले 30 लाख सालों तक यह प्रोसेस ऐसे ही चलता रहा और जर्रा के झुंड में से 20 प्लेनेट उभर कर सामने आ गए जो सारे सूरज के गिर्द घूम रहे थे अब क्योंकि ये 20 प्लेनेट काफी बड़े हो चुके थे इसी वजह से इनकी अपनी ग्रेविटी ने ऑर्बिट के दौरान एक एक दूसरे को अपनी तरफ अट्रैक्ट करना शुरू कर दिया और आखिरकार इनकी आपस में टक्कर होने लगी हर एक टक्कर में दो प्लेनेट ने आपस में मिलकर एक बड़ा प्लेनेट बना दिया वक्त के साथ-साथ इन टक्कर की वजह से सोलर सिस्टम में जहां पहले 20 प्लेनेट थे वो अब सिर्फ चंद प्लेनेट ही रह गए जिसमें वीनस मरक्यूरी मार्स और हमारा अर्थ भी शामिल है पर यह अर्थ उस वक्त ऐसा नीला और जिंदगी से भरपूर नहीं था बल्कि ये कोलिजन की वजह से आग बगोले की तरह काफी गर्म था एस्ट्रोनॉमिकली ऑर्गेनिस्ट आ भी गया तो यह सेकंड से भी कम टाइम में भाप बनकर खत्म हो जाएगा अर्थ में जिंदगी के आसार सिर्फ तभी उभर पाएंगे जब इसका टेंपरेचर गिरेगा लेकिन जब तक यह ठंडा होता इसे अपनी एजिस्ट मेंस के लिए अभी सबसे बड़े खतरे का सामना करना था सोलर स्टॉर्म जी हां सूरज से निकलने वाली श आएं जब भी किसी प्लेनेट में दाखिल होती हैं तो वह उसके एटमॉस्फेयर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं यही सोलर स्टॉर्म्स दूसरे प्लेनेट में भी आते हैं और इसकी वजह से यहां जिंदगी का बढ़ना मुमकिन नहीं होता ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं मार्स जो अर्थ का पड़ोसी प्लेनेट है वहां पर सोलर स्टॉर्म्स ने जिंदगी के चांसेस को खत्म कर दिया है पर इन्हीं सोलर स्टॉर्म्स का अर्थ ने मुकाबला कैसे किया इसका सीक्रेट छुपा है अर्थ के कोर में जब मॉलिक्यूलर क्लाउड में अर्थ बनना शुरू हुआ तो इसका टेंपरेचर काफी बढ़ गया इस टेंपरेचर ने अर्थ को एक फायर बॉल बना दिया पत्थर पिघल गए और उनमें मौजूद आयरन और निकल भी अब क्योंकि आयरन और निकल का वजन काफी ज्यादा होता है तो वह अर्थ के कोर में गिरना शुरू हो गए जियोफिजिसिस्ट का मानना है कि जब भी मोल्टन आयरन को गोल घुमाया जाए तो वह अपने गिर्द एक मैग्नेटिक फील्ड बना देता है अब क्योंकि अर्थ के कोर में मोल्टन आयरन की क्वांटिटी ज्यादा है तभी व एक मैग्नेटिक फील्ड जनरेट करता है और स्पेस में यह मैग्नेटिक फील्ड का असर जहां तक रहता है इसे मैग्नेटोस्फीयर कहते हैं नॉर्मली यह मैग्नेटिक फील्ड अर्थ की वो साइड जो सूरज को फेस कर रही है उसमें 370000 किमी तक फली हुई है यानी लगभग जितना दूर चांद है और जो साइड सूरज को फेस नहीं कर रही उसमें अर्थ की मैग्नेटिक फील्ड लाखों किलोमीटर्स तक फैल जाती है यही वजह है कि सूरज से निकलने वाली रेडिएशंस को मैग्नेटिक फील्ड रोक देती है नॉर्थ और साउथ पोल पे यह मैग्नेटिक फील्ड कम है तो यहां पर यह रेडिएशन एटमॉस्फेयर में दाखिल होकर पार्टिकल्स के साथ मिलकर अरोरा इफेक्ट पैदा करती हैं जिन्हें हम नॉर्दर्न और सदर्न लाइट्स भी कहते हैं लेकिन यह रेडिएशंस इतनी कम है कि इसका कोई नुकसान नहीं होता नया-नया अर्थ जिसने सोलर स्टॉर्म्स का मुकाबला तो कर लिया पर अभी भी यह जिंदगी के लिए परफेक्ट नहीं था अर्थ को एक और मुश्किल तरीन मरहले से भी गुजरना था एक प्लेनेट कोलिजन इसका हम इंसानों को पता कैसे चला इसके लिए हमें 1960 में जाना होगा अमेरिका ने कई अपोलो मिशंस प्लान किए और एस्ट्रोनॉट्स को रिसर्च के लिए चांद पर भेजा पहले यह माना जाता था कि चांद अर्थ का ही टुकड़ा है जो किसी वजह से अर्थ से अलग हो गया लेकिन जब एस्ट्रोनॉट्स चांद पर गए और वहां पत्थरों के कुछ सैंपल्स लेकर आए तो देखने में यह पत्थर अर्थ पर पाए जाने वाले पत्थरों जैसे नहीं दिखते थे ऐसा मालूम होता है कि इन पत्थरों को जलाया गया हो मजीद इन्वेस्टिगेशन से मालूम पड़ा कि चांद और अर्थ के पत्थर में मौजूद ऑक्सीजन आइसोटोप एक जैसे हैं जिससे यह साबित होता है कि चांद था तो पहले अर्थ का ही हिस्सा लेकिन बहुत ज्यादा गरमाइल किया है इतनी ज्यादा गरमाइल एक ही चीज पैदा कर सकती है और वह है किसी और प्लेनेट का टकराना जब अर्थ आहिस्ता आहिस्ता ठंडा हो रहा था उस वक्त एक दूसरा प्लेनेट अर्थ की तरफ बढ़ने लगा यह प्लेनेट करीब मार्स की साइज जितना बड़ा था और इसको थिया का नाम दिया गया है जब थिया अर्थ से टकराया तो बहुत सार एनर्जी रिलीज हुई अर्थ और थिया के जलते हुए टुकड़े आसमान में फैल गए और आखिरकार अर्थ को ऑर्बिट करने लगे अर्थ को ऑर्बिट करते यह टुकड़े अगले हजारों सालों तक उसी तरीके से एक दूसरे से जुड़ते गए जैसे मॉलिक्यूलर क्लाउड में पार्टिकल्स जुड़े थे और यूं जन्म हुआ चांद का पहले चांद अर्थ के काफी करीब था एक्सपर्ट्स का कहना है कि अभी जितना हमें चांद दिखता है पहले यह 15 टाइम्स ज्यादा बड़ा था लेकिन आहिस्ता आहिस्ता करीब 1.5 इंचे पर ईयर के हिसाब से यह अर्थ से दूर हो रहा है आपको यहां बताते चले कि थिया का अर्थ के साथ हलना टकराव और चांद का पैदा होना यह वो दो इवेंट्स थे जिनकी वजह से आज हम इस दुनिया में मौजूद हैं साइंटिस्ट का मानना है कि यह दो इवेंट्स अगर नहीं होते तो शायद अर्थ पर कभी जिंदगी आ ही नहीं पाती पर आखिर कैसे जब मार्स के साइज जितना प् पनेट अर्थ से टकराया तो इसने अर्थ को एक साइड पर झुका दिया इसको थोड़ा सा टिल्ट कर दिया अर्थ जो पहले अपने एक्सिस पर ही रोटेट कर रहा था अब यह 23.5 डिग्री के एंगल पर टिल्ट हो गया और इस टिल्ट ने अर्थ को दिए मुख्तलिफ किस्म के मौसम जैसा कि आप जानते हैं कि जमीन की एक फुल रोटेशन एक दिन को जाहिर करती है और सूरज के गिर्द एक पूरा चक्कर एक साल को अब क्योंकि अर्थ 23.5 पर झुका हुआ है तो साल के वो महीने जब नॉर्दर्न हेमिस्फीयर सूरज से ज्यादा करीब होता है तब यहां गर्मियों का सीजन होता है और सर्दियों में यही हिस्सा सूरज से दूर हो जाता है इस टिल्ट की वजह से अर्थ के सरफेस पर पूरा साल एक जैसी गरमाइल और ना ही एक जैसी ठंड इन बदलते मौसम की वजह से हमें मुख्तलिफ फ्रूट्स और सब्जियां खाने को मिलती हैं साल भर मुख्तलिफ रंग देखे जा सकते हैं और मन सून में बारिश के साइकिल की वजह से पीने का साफ पानी रिवर्स के जरिए मिलता है इसके अलावा चांद के बनने की वजह से समुंदरी लहरें भी बनती हैं यह लहरें समंदरी मखलूक के लिए न्यूट्रिएंट्स फराम करती हैं क्योंकि अगर यह लहरें ना होती तो समंदर में न्यूट्रिएंट्स सिर्फ चंद स्पॉट्स पे ही रहते लेकिन यहां पर सवाल यह पैदा होता है कि समंदर में लहरें तो तब बनेंगी जब अर्थ पर पानी होगा जो जिंदगी के लिए सबसे अहम है तो फिर आखिर अर्थ पर पानी आया ही कहां से यह साइंटिफिक कम्युनिटी के लिए सबसे बड़ी मिस्ट्री रही है जनवरी 2005 में नासा ने डीप इंपैक्ट नामी एक प्रोब स्पेस में लॉन्च किया इसको 27 करोड़ किलोमीटर दूर टेंपल वन नामी एक कॉमेट के पास भेजा गया इस प्रोब के आगे 350 किलो का कॉपर इंपैक्टर लगाया गया जिसे टेंपल वन से जाकर टकराना था 4 जुलाई 2005 को यह इंपैक्टर 38 1000 किमी पर आर की स्पीड से टेंपल वन कॉमेट से जा टकराया और उसने एक बहुत बड़ा क्रेटर बना दिया इस इंपैक्ट को डीप इंपैक्ट प्रोब पर लगे रेडियो टेलीस्कोप्स की मदद से कैप्चर किया गया और इस टेलिस्कोप ने जो कुछ दिखाया वो वाकई काफी हैरान कुन था टक्कर की वजह से जो लाइट निकली उसको स्पेक्ट्रोस्कोपी की मदद से एनालाइज करने पर मालूम पड़ा कि टेंपल वन के अंदर बर्फ की फॉर्म में पानी भरा हुआ है अब यह तो साबित हो गया कि सूरज से बहुत दूर एस्टेरॉइड बेल्ट में मौजूद कोमेट्स के अंदर पानी मौजूद है लेकिन आखिर यह कोमेट्स अपना ऑर्बिट छोड़कर अर्थ तक आए कैसे और वो भी करोड़ों की तादाद में एक्सपर्ट्स का मानना है कि यह काम हमारे सोलर सिस्टम में मौजूद सबसे बड़ा प्लेनेट ही कर सकता है जुपिटर जी हां जुपिटर हमारे सोलर सिस्टम का सबसे बड़ा प्लेनेट है और जाहिर है इसकी ग्रेविटी भी अर्थ से कई गुना ज्यादा है और इसकी खास बात यह है कि यह एस्टेरॉइड बेल्ट के बिल्कुल करीब ऑर्बिट करता है एस्ट्रोनॉमिकली ऑर्बिट को जुपिटर की ग्रेविटी ने एलिप्टिकल ऑर्बिट में कन्वर्ट कर दिया नॉर्मल सर्कुलर ऑर्बिट वो होता है जब एस्टेरॉइड सूरज के गिर्द परफेक्ट सर्कल में चक्कर लगा रहे हो लेकिन जब जुपिटर की ग्रेविटी ने उनको अपनी तरफ अट्र किया तो वह अपने सर्कुलर ऑर्बिट से निकलकर ओवल शेप के ऑर्बिट में चले गए जिसे एलिप्टिकल ऑर्बिट कहते हैं और इसी दौरान जब वह अर्थ के रास्ते में आए तो ग्रेविटी ने उनको अर्थ पर खींच लिया जियोलॉजिस्ट का मानना है कि पानी अर्थ पर शुरुआत में नहीं था बल्कि यह अर्थ के पैदा होने के 50 करोड़ साल बाद यहां आया है पर यह हमें पता ही कैसे चला जरकन एक मिनरल है जो पत्थरों में पाया जाता है और इसके बनने के लिए पानी बहुत जरूरी है और क्योंकि इसमें यूरेनियम के जर्रा भी होते हैं इसी वजह से रेडियो एक्टिव डिके की मदद से इसकी एज का पता लगाया जा सकता है अभी तक अर्थ प मौजूद जितने भी जरकन के सैंपल्स की एज निकाली गई है उससे मालूम होता है कि वो 4 अरब साल पहले बने थे यानी अर्थ पैदा होने के 50 करोड़ साल बाद मॉलिक्यूलर क्लाउड से अर्थ की पैदाइश मार्स जितने बड़े थिया का टकराना अर्थ का टिल्ट होना और चांद की वजह से समंदर में लहरें पैदा होना करोड़ों किलोमीटर्स दूर जुपिटर की वजह से अर्थ को पानी मिलना जिंदगी के आसार बेहतर होते दिखाई देते हैं यहां तक अर्थ का टेंपरेचर काफी हद तक गिर चुका था करीब 100 डिग्री सेल्सियस तक लेकिन जिंदगी के लिए सबसे अहम चीज अभी भी अर्थ में नहीं थी ऑक्सीजन